अल्मोड़ा-आध्यात्मिक प्रदेश उत्तराखंड में पर्यटन को लेकर अपार संभावनाएं हैं।चूंकि यह राज्य हमेशा से ही चर्चित रहा है।लोकगाथाओं,प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यहां आदिम जातियां रहीं हैं।यक्ष,किन्नर, नाग जैसी प्राचीन जातियों के साथा कई जनजातियां,कई शासकों ने इस भूमि में अपनी कर्मस्थली बनाई है।यह तभी से चर्चा के केंद्र में रहा है।देश-विदेश के पर्यटक यहां हमेशा आते रहे हैं।वह दौर अलग था और यह दौर काफी अलग है।पयर्टन के लिए तब वही लोग आया करते थे जो इस भूमि के महात्म्य को जानना चाहते थे।अब सैर-सपाटा,पिकनिक,मस्ती,छुट्टियां बिताने आदि के लिए लोग आ रहे हैं। यह पर्वतीय प्रदेश है,जहां की भौगोलिक दशाएं काफी विपरीत हैं। यहां रोजगार के लिए काफी कम संभावनाएं हैं।यदि पर्यटन को रोजगार का हिस्सा बनाया जाए तो सरकार को रेविन्यु मिल सकता है।राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार पयर्टन को बढाने के लिए प्रयास कर रही हैं,जो किया भी जाना चाहिए क्योंकि पयर्टन से किसी भी क्षेत्र की आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सकता है।पर्यटन का विकास होने से रोजगार के अवसर खुलते हैं।जैसे हम जगह-जगह होम स्टे,जगह जगह भोजनालय,जगह जगह फास्ट फूड सेंटर आज के दौर में देख रहे हैं।होम स्टे ने भले ही ग्रामीणों को रोजगार दे दिया है लेकिन यह बात सत्य है कि लोगों ने पर्यटकों को खींचने के लिए घरों की दीवारों को चटख रंगों,चित्र बनाकर,पेंट आदि कर प्राकृतिक से कृत्रिम कर दिया है।ठीक ऐसे ही मंदिरों के आस-पास खुले हुए रेस्टोरेंट,होटल आदि में भी इसी तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं जो क्षेत्र की पहचान को मिटा रहे हैं।पर्यटन प्रबंधन कैसे हो?-नैसर्गिक छटा, प्राकृतिक सुंदरता एवं प्राकृतिक संपदाओं से पूर्ण इस प्रदेश के प्रत्येक कोने में पर्यटन को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है लेकिन यह पयर्टन कैसा हो? इसका प्रबंधन कैसे हो? यह पर्यटन विभाग एवं सरकार को सोचे जाने की आवश्यकता है। जगह-जगह पर्यटक स्थल बनाए जाने से प्रदेश की आर्थिकी तो बढ़ेगी। लगातार जनदबाव बढ़ने से शांत शांत वादियों में कोलाहल हो रहा है, जंगलों-रास्तों पर गंदगी के अंबार लग गए हैं, पयर्टक स्थलों पर अनावश्यक भीड़भाड़ हो रही है, वाहन बेतरतीब खड़े होने लगे हैं आदि अनेकानेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। आध्यात्मिक स्थल भी सैल्फी प्वाॅइंट बनने लगे हैं। केदारनाथ जैसे कई आध्यात्मिक स्थल अब रील्स, सैल्फी प्वाॅइंट बन रहे हैं, जबकि यह क्षेत्र आध्यात्मिक रूप से उत्कृष्ट केंद्र हैं। लोगों का ध्यान प्रकृति को देखने का नहीं, लोकदेवता का ध्यान करना नहीं बल्कि रील्स में कैद होना रह गया है। सोशल मीडिया में हजारों ऐसी वीडियो विद्यमान हैं जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि चर्चित आध्यात्मिक स्थल अब आध्यात्मिक वातावरण से कोसों दूर छिटक गए हैं।अक्सर इन स्थानों पर पयर्टकों और टैक्सी संचालकों तथा स्थानीयों के मध्य झड़प होती हुई दिखाई देती है।कैंची धाम की पार्किंग में इस तरह की झड़प को आप देखेंगे।मंदिरों के पास खुल रहे फड़ एवं दुकानों से भी इन स्थलों की शांति भंग हुई है।इन दुकानों/फड़ों में प्लास्टिक की सामग्री बिक रही है तथा आसपास बहुत गंदगी का अंबार लगा होता है।मंदिर समिति एवं प्रशासन को इसपर चिंतन करना चाहिए।यह बाद देवभूमि की सरकारों को विश्लेषण करने की जरूरत है कि जो पर्यटक आ रहे हैं,क्या वे आध्यात्म,नैसर्गिक छटा का आनंद लेने या यहां की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेने आ रहे हैं या फिर वो इस देवभूमि की शांति भंग करने पहुंच रहे हैं,क्योंकि पर्यटकों का व्यवहार एवं उनकी क्रियाएं इस भूमि के ठीक विपरीत होती है।जंगलों में मौज-मस्ती,पार्टी,शानो-शौकत आदि के लिए वो यहां प्रवेश कर रहे हैं।
आध्यात्मिक स्थलों को आधुनिकीकरण- कई ऐसे पर्यटक होते हैं जो मंदिर क्षेत्र में प्रकृति एवं देवताओं से एकाकार होने आता है। वह ध्यान,साधना करना चाहता है, प्रकृति को देखना चाहता है।अब आध्यात्मिक स्थलों पर आधुनिक रंग दिया जा रहा है ताकि पर्यटक खींचे चले आएं।मंदिर क्षेत्र में झूले,चर्खे आदि लगने लगे हैं जिससे मंदिर का स्वरूप एक पिकनिक स्पाॅट की भांति बन रहा है।अब मंदिर से सटकर ही शौचालय,मंदिर के पास ही होटल, मंदिर के पास ही भोजनालय खुलने लगे हैं।जबकि मंदिर एक ऐसा क्षेत्र है जहां इन सब चीजों का होना जरूरी नहीं।मंदिरों के पास ही अब ईंट, कंकड़ों के भवन बन रहे हैं जिससे उस मंदिर का स्वरूप ही परिवर्तित हो गया है। अब ऐसा लगने लगा है कि वह मंदिर नहीं बल्कि कोई रिसाॅर्ट हो।
इस पवित्र प्रदेश में जागेश्वर धाम एक आध्यात्मिक स्थल रहा है। शिव साधना को लेकर यह स्थान आज भी आकर्षण का केंद्र है। किंतु यहां अब यहां अब वह शांति नहीं देखी जा रही है जो दो दशक पूर्व दिखाई देती थी। अब रही सही कसर वहां फूलों की टोकरी, छोटी-छोटी दुकानों ने पूरी कर दी है। यदि आप उन फड़ों का रुख करेंगे तो वे आगंतुकों के साथ जबरदस्ती सामान खरीदने के लिए दबाव डाल रहे हैं। उनके दुकानों के समीप गंदगी के अंबार लग चुके हैं तथा पास में बहने वाली जटा गंगा इन दुकानों से निकलने वाले अपशिष्ट से गंदी हो रही है। जिसपर प्रशासन का कोई ध्यान नहीं। वहीं आरतोला से जागेश्वर की तरफ सड़के के किनारे फैंके हुई सैकड़ों कोल्ड ड्रिंक की बोतलें, चिप्स के रैपर आदि इस बात की तरफ ईशारा करती हैं कि आध्यात्म से किसी का कोई लेना देना नहीं है। रही सही कसर बाहरी पर्यटकों ने कर दी है। वे गाड़ियों से पानी की बोतल फेंकते हुए हमेशा दिखाई देते हैं। घूमने, सैर-सपाटा करने, छुट्यिां काटने के लिए बाहर से लोग आ रहे हैं। जबकि इन स्थानों पर लोग मन से और शुद्धता के भाव से पहुंचा करते थे। आस्था का भाव इन स्थलों की पहचान था जिसे जिला प्रशासन एवं मंदिर प्रशासन के सहयोग से प्रबंधन किए जाने की आवश्यकता है। दूसरा स्थान चितई है। यह भी एक चर्चित स्थल है जहां विश्वप्रसिद्ध गोलूदेव का मंदिर है। पूर्व में इस मंदिर में भी लोग पहले दुखःसंताप से मुक्ति के लिए आते थे। अब का हाल कुछ और ही है। यदि आप चितई के गोलूदेव मंदिर जा रहे हैं और आप यदि भीड़ भरी पंक्ति में खड़े हैं तो आपको हजारों मोबाइल से अपने चित्र खींचते हुए पर्यटक, कोलाहल करते हुए दिख जाएंगे या फिर उनकी बातें सुनकर आपको लगेगा कि ये मंदिर नहीं बल्कि किसी चिड़ियाघर में जा रहे हैं। उनकी बातों से यह लगेगा कि उनके लिए यह शांति और साधना का स्थल नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल है। यहां भी अब कोलाहल होने लगा है। इस मंदिर का प्रबंधन होना समय की मांग है। वृद्ध जागेश्वर मंदिर पहुंचेंगे तो मंदिर के पास अब कई दर्जनों फड़ खुल गए हैं जो गाड़ी से उतरते ही अपने फड़/दुकानों में आने का दबाव डालते हैं। जिससे आने वाले श्रद्धालुओं, आगंतुकों, पर्यटकों में गलत छवि बन जाती है। होना तो यह चाहिए कि मंदिर के 200-300 मीटर दायरे में दुकानों को होना नहीं चाहिए।
पर्यटन स्थलों पर पार्किंग का निर्माण- जब पर्यटन व्यवसाय बढ़ने लगता है तो सड़कों पर भीड़ बढ़ने लगती है। हजारों गाड़ियों से जाम की समस्या गहरा जाती है। स्थानियों एवं वरिष्ठ नागरिकों, बच्चों, महिलाओं, आॅफिस के कर्मियों को चलने में समस्याएं आती हैं। वे अनावश्यक कोलाहल से दूर रहना चाहते हैं, ऐसे में बाहर से आने वाले पर्यटकों एवं उनकी गाड़ियों को रुकने के लिए स्टैंड बनाए जाने चाहिए तथा पर्यटन को देखते हुए यातायात की व्यवस्था में भी तेजी लानी चाहिए। भीड़भाड़ में गाड़ियों के प्रवेश को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।पर्यटन स्थलों पर बायो शौचालयों का निर्माण- कई बार घूमने आदि के स्थानों पर शौचालयों की व्यवस्था खराब मिलती है।अक्सर शौचालयों में गंदगी दिखाई देती है। पर्यटकों को शौच जाने के लिए जंगलों का रुख करना पड़ता है।सड़कों के किनारे और सड़कों के आसपास मलमूत्र त्यागते हुए पर्यटक दिखाई देंगे, ऐसे में सुलभ शौचालयों, बायोटाॅयलेट की व्यवस्था की जाए, जहां स्वच्छक की तैनाती हो।
घूमने के लिए आ रहे पर्यटकों की असंख्य गाड़ियों के कारण वातावरण दूषित हो जाता है।ऐसे में गाड़ियों की फिटनेश के आधार पर एक जिले से दूसरे जिले, एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए। निजी वाहनों की अपेक्षा सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इससे स्थानीय रोजगार भी सुदृढ़ होगा और अनावश्यक जाम लगने की घटनाएं भी रुकेंगी। कई बार पर्यटक अपनी गाड़ियां लेकर इस पर्वतीय प्रदेश में प्रवेश करते हैं। उन्हें यहां की सड़कों का अंदाजा नहीं आता और उनकी गाड़ियां खाई में गिर जाती हैं। हालिया वर्षों में देखें तो कई आंकड़े हमारे सामने आते हैं जो भयानक एक्सीडेंड की तरफ ईशारा करते हैं। ऐसे में सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए। पर्यटन के अलग-अलग रूप हैं। यदि धार्मिक यात्रा की जा रही है तो धार्मिक पर्यटन एवं ऐतिहासिक स्थलों की घुमक्कड़ी की जा रही है तो ऐतिहासिक पयर्टन, तीर्थों का भ्रमण हो रहा हो तो तीर्थाटन है लेकिन इन सब में अब एक शांत वातावरण नहीं दिखाई पड़ता। यदि मंदिरों का पर्यटकों द्वारा भ्रमण किया जा रहा है तो उन्हें आध्यात्मिकता को ध्यान में रखकर वहां घूमना चाहिए। मंदिर कमेटियां सूचना पत्रक बांटकर पर्यटकों को व्यवहार बनाए रखने की अपील कर सकती है। पिकनिक स्पाॅटों की घुमक्कड़ी की जा रही है तो वहां की स्वच्छता का विशेष ख्याल रखने के लिए स्थान-स्थान पर निर्देश अंकित किए जाने चाहिए।पर्यटन स्थलों की समुचित जानकारी- पर्यटन होने से आर्थिकी मजबूत जरूर हो जाती है लेकिन इससे राज्य में चुनौतियां भी उत्पन्न होती हैं। एक संस्कृति प्रदेश का व्यक्ति जब दूसरे संस्कृति प्रदेश में प्रवेश करता है तो वो वहां के सांस्कृतिक स्थितियों से अपरिचित होता है। वो वहां की व्यवस्थाओं से अपरिचित होता है, ऐसे में आवश्यक है कि पर्यटक भी ध्यान रखें कि वो किस क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं? वे उन स्थानों के बारे में अध्ययन कर लें,जहां वे भ्रमण करने की सोच रहे हैं, ताकि उनके व्यवहार से माहौल गलत न हो। कई बार पर्यटकों का व्यवहार इतना गलत होता है कि उससे शांति में खलल पड़ता है और कई बार स्थानीय का व्यवहार गलत होता है जिससे आक्रामकता बढ़ती हुई दिखाई देती है। अमूमन टैक्सी ड्राइवरों में सवारी को लेकर हाथापाई होते हुए हम देखते हैं। इन स्पाॅटों के आस-पास पार्किंग की व्यवस्था हो।प्रशिक्षित गाइडों की व्यवस्था- प्रत्येक राज्य को अब पर्यटन को नवीन दिशा देने के लिए प्रशिक्षित गाइड की नियुक्ति करने के प्रयास भी करने चाहिए।प्रत्येक जिले में पयर्टन विभाग में गाइडों की तैनाती हो। उन्हें स्थानीय जानकारी हो, उन्हें इस तरह से प्रशिक्षित किया जाए कि वे पर्यटकों के साथ व्यवहार अच्छा रखें और इस क्षेत्र की छवि को बेहतर बना सकें। कई बार पर्यटक आते हैं लेकिन उन्हें जानकारी नहीं प्राप्त हो पाती। वे जानकारी के अभाव में नवीन डेस्टिनेशन नहीं खोज पाते। अतः प्रशिक्षित गाइडों की नियुक्ति की जानी चाहिए। गाइडों की नियुक्ति होने से युवाओं को रोजगार प्राप्त होगा।
पर्यटन सीजन के आंकड़ों का विश्लेषणः जिन राज्यों में पर्यटकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है वहां लचर संरचनात्मक व्यवस्थाओं के कारण पर्यटकों को समस्याएं आई हैं। प्रत्येक वर्ष पर्यटन सीजन खत्म होने के उपरांत आंकड़ों का विश्लेषण कर आगामी पर्यटन सीजन से पूर्व व्यवस्थाएं सुदृढ करने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाएं। पर्यटकों का फीडबैक लेकर भी इन व्यवस्थाओं को दुरूस्त किया जा सकता है।
संस्कृति और पर्यटन- सांस्कृतिक स्थितियों को पर्यटन व्यवसाय से जोड़ा जाना चाहिए। यदि किसी सांस्कृतिक क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए तो उससे संस्कृति का प्रसार भी होगा और संस्कृति को प्रोत्साहन मिलेगा। पर्यटक नवीन संस्कृति से परिचित होंगे।
स्थानीयता को बढ़ावा- लोकल फाॅर वोकल की अवधारणा को सही मायने में पर्यटन व्यवसाय सफल कर सकता है। ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देना है तो पर्यटकों को स्थानीयता से जोड़ना उचित होगा। स्थानीय उत्पाद, सामग्री आदि का प्रस्तुतिकरण हो। यदि पर्यटन क्षेत्र में स्थानीयता को तवज्जो दी जाए तो पर्यटन का स्वरूप सही मायने में व्यवस्थित हो पाएगा। स्थानीयता का ख्याल रखकर पर्यटन प्रबंधन किए जाने की आवश्यकता है।किसी क्षेत्र की पहचान उस क्षेत्र में स्थित उस क्षेत्र की धरोहरों से होती है। यदि वे धरोहरें आधुनिकता के रंग में रंग गई तो उस क्षेत्र की पहचान कैसे बन पाएगी? हमें अपने क्षेत्र की धरोहरों को यथावत रखने की पहल करनी चाहिए। पर्यटकों को रिझाने के लिए अपने क्षेत्र की पहचान को बदल देना बुद्धिमत्ता नहीं। हालांकि पर्यटन व्यवसाय को ध्यान में रखकर उसका उचित प्रबंधन किए जाने की आवश्यकता है।पर्यटन ऐसा हो जिससे क्षेत्र की पहचान धूमिल न हो। सरकारों को उपरोक्त बिंदुओं पर विमर्श करते हुए उचित प्रबंधन किए जाने की आवश्यकता है।
आध्यात्मिक प्रदेश उत्तराखंड में पर्यटन प्रबंधन की आवश्यकता-डाॅ ललित चंद्र जोशी
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